खुशी के रंग : राजस्थान पत्रिका

 *सीधी-सट्ट*


( राजस्थान पत्रिका के रविवार 6/11/16 के अंक में प्रकाशित। संपादक और पत्रिका परिवार का धन्यवाद। - मोहन थानवी ) 

अनहोनी कब हो जाए, कौन जान सकता है। किशन, तुम पर जो बीत रही है, हमें भान है लेकिन...। दोस्तों के भावों को किशन भी समझ रहा था, मगर... उसके चेहरे पर हवाईयां थी। वह बदहवास था। 

उसके बाबा के न रहने का समाचार उसे भीतर तक हिला चुका था। वह नौकरी के लिए अपने घर से दूर था। बस, दोस्त उसके संग थे। वे ही उसे दिलासा दे रहे थे। दोस्तों के समझाने बुझाने पर उसमें कुछ सोच विचार की शक्ति का संचार हुआ। दोस्तों की सलाह मानते हुए वह उठा और साहब के चैम्बर में पहुंचा। साहब फोन पर किसी से बतिया रहे थे, उसे देख बातचीत बंद कर दी। 

साहब ने भावहीन उससे पूछा -  क्या हुआ किशन, तुम तो आज जोधपुर अपने गांव जाने वाले थे; यहां कैसे ? 

किशन ने टेलीग्राम साहब की ओर बढ़ा दिया। टेलीग्राम उसे अभी ऑफिस में ही मिला था। उसके बाबा नहीं रहे थे।

टेलीग्राम पढ़ने के बाद भी साहब के हाव-भाव में कोई परिवर्तन हुआ। वे बोले, मैं क्या करूं ? साहब के स्वर में न जानने की उत्कंठा, न सहानुभूति और न ही सांत्वना की झलक। 

किशन को साहब के स्वभाव की जानकारी थी। उसे याद है, चार दिन से उसने ऑफिस से छुट्टी लेने की कोषिष की, साहब थे कि उसकी सुन ही नहीं रहे थे। कल जब वह ऑफिस में मैडम के ड्राइवर रामदीन को यह बातें बताते हुए सिसक रहा था कि  मैडम  आ पहुंची थीं। मैडम ने पूछा और उसके बताने पर जान लिया कि गांव में उसके बूढ़े बाबा  दो महीने से बीमार चल रहे हैं। मैडम ने ही उसकी 15 दिनों की छुट्टी मंजूर करवाई और उसे दो हजार रुपए एडवांस भी दिलवा दिए। इस बात का पता चलने पर मैनेजर साहब ने उसे टेढ़ी आंखों से देखा था लेकिन बोले कुछ नहीं। 

किशन ने बीती रात कैसे काटी थी यह वही जानता था। सुबह वह हर रोज के समय से पहले ही नहा-धोकर पीपल पूजने और उसकी जड़ में पानी देने जा पहुंचा तो पड़ोसी गिरधारी ने उसे हैरानी से देखा था। गिरधारी ने उससे पूछा भी था, क्या बात है भैया, आज तो मुंह अंधेरे ही पीपल पूजने आ गए।  रोजाना तो सूरज सिर पर नाच रहा होता है...। किशन से सारी बात जानकर गिरधारी ने  बाबा के स्वास्थ्य लाभ की कामना की थी। वह आफिस पहुंचा और दोपहर की बस से  अपने घर जोधपुर के लिए रवाना होने की तैयारियां करने लगा  कि उसे बाबा के न रहने का समाचार तार से मिला। किशन को अब और ज्यादा तैयारी, और ज्यादा रुपयों के साथ घर की ओर रवाना होना था। तभी तो दोस्तों, सहकर्मियों के दिलासा देने व समझाने पर वह साहब के पास पहुंचा था। 

किशन ने साहब की ओर आषाभरी नजरों से देखा किन्तु उनकी ओर से कोई रिस्पॉन्स न मिलने पर वह रुंधे कंठ से बोला -साहब, गांव में पैसे की तंगी है। मुझे कल मैडम ने दो हजार रुपए एडवांस दिलाए थे। पांच हजार रुपए और जरूरत है।

साहब ने उसे निर्विकार भाव से देखा, हाथ में पकड़े फोन के रिसीवर को क्रेडिल पर रखा और कटु स्वर में बोले - मैडम ने तुम्हें दो हजार एडवांस दे दिए तो इसका मतलब यह नहीं कि अब पांच हजार और भी मिल जाएंगे। 

साहब के कमरे से किशन भले ही निराश निकला, लेकिन उसने आशा का दामन नहीं छोड़ा। उसने मैडम को घर पर फोन किया तो मैडम ने उसे घर बुला लिया। साहब को बता कर आफिस से बाहर जाना जरूरी नहीं होता तो किशन कदापि उन्हें नहीं बताता मगर बताना पड़ा। वे बोले, यह फाइल भी लेते जाओ। मैडम को दे देना।

किशन फाइल लेकर सेठजी के घर की ओर चल पड़ा मगर उसके मस्तिष्क में उससे कहीं तेज यादें चल रहीं थीं। सेठजी का पच्चीस साल का बेटा सुनील न रहा, वह भी कामगारों का मान करता था। शादी के कुछ समय बाद ही सुनील एक्सीडेंट में चल बसा था। सेठ दामोदर को पक्षाघात हुआ और मैडम, सुनील की पत्नी खुशी घर में अकेली रह गई। ख्यालों में गुम किशन आधे घंटे बाद सेठजी के घर था। मैडम ने उसके बाबा के न रहने पर अफसोस जताया। वहीं उसे पांच हजार रुपए  दे दिए। किशन ने साहब की दी हुई फाइल मैडम को सौंपी और रवाना होते होते कहा - मैडम, आपने इस मौके पर मेरी जो मदद की है वह मैं सात जन्म तक नहीं भूल सकूंगा।

मैडम ने कोई जवाब नहीं दिया। किशन बड़बड़ा रहा था, बड़े आदमी, रुपयों में खेलने वाले उस जैसे कामगार से और क्या बतियाएंगे ? उसने तय किया कि साहब के व्यवहार की शिकायत करेगा। मैडम से विदा लेते लेते कहा कि फिर घर आकर वह उन्हें साहब के बारे में कुछ बताएगा।

काफी दिन बीत गए, किशन गांव से आने के बाद अपने काम में व्यस्त हो गया । साहब के प्रति उसके मन में संशय पैदा होने लगा। वे किसी कामगार को आदमी समझते ही नहीं थे। शोषण और हुकूमत करना जैसे अपना अधिकार मानते थे। वह साहब को शक की नजरों से देखने लगा। उसने अपने शक की बात जब साथी कामगारों और दोस्तों को बताई तो उसने जाना की उसने जो धुआं उठता देखा है, उसकी जड़ तो भट्टी में भभक रही आग है। दोस्तों की जानकारी सुनकर वह सिहर उठा। वे उसे बताते थे, साहब सेठजी को चूना लगा रहे हैं, सुनील का एक्सीडेंट करवाने वाले भी...। सुनील की पत्नी, मैडम पर उसकी गंदी निगाहें हैं। 

किशन तनाव में रहने लगा। एक दिन किशन ने दोस्तों से कहा, सुनील भले ही सेठ का लड़का था मगर वह हम कामगारों से दोस्ताना व्यवहार रखता था। ईश्वर की कृपा से सुनील की पत्नी खुशी मैडम भी भले दिल की मालिक हैं। उनके साथ ऐसी नाइंसाफी....। बर्दाश्त नहीं होती। दोस्तों के पास जवाब नहीं, लाचारी थी, सवाल था, क्या कर सकते हैं हम ?

 दिन गुजरते रहे मगर किशन के दिलोदिमाग पर साहब की काली करतूतें हावी रहीं। उसे सेठजी और उनके परिवार, मैडम की फिक्र थी। कहीं साहब उन्हें भी....। वह सहमा सहमा रहने लगा। उसकी फिक्र थी, या मैडम की खुशकिस्मती अथवा संयोग कि एक दिन किशन बाजार में फल वाले से आम खरीद रहा था कि कार में कहीं जा रही मैडम ने उसे देख कार रुकवाई और ड्राइवर से कहकर उसे करीब बुलवाया। वह विचार कर रहा था, मैडम का उससे यूं बाजार में मिलना उस मुलाकात का नतीजा तो नहीं जो घर पर हुई थी । मैडम एक फाइल  किशन को देते हुए बोली - किशन, यह फाइल कल सुबह ऑफिस लेते जाना, मैनेजर साहब को दे देना। खुशी मैडमे की कार जरा आगे बढ़ी थी कि उन्हें  कुछ याद आया और उन्होंने कार फिर रुकवाई व  किशन से पूछा - अरे हां...! तुम गांव से कब आए?

किशन - मैडम, मुझे आए तो करीब दस दिन हो गए।

रीमा - ओह! फिर तुम बंगले पर क्यों नहीं आए? पिताजी भी तुम्हारी राह देखते हैं। तुमने कहा था कि कुछ बातें बताउंगा।

सुनील के एक्सीडेंट समेत और अन्य सुनी सुनाई बातों को याद करता किशन आशंकित हो उठा कि मैडम को पूरी बात बताने का परिणाम क्या निकलेगा। आशंकाओं को भूलते हुए उसने ज्ञात हुई अनपेक्षित बातें सेठजी तक पहुंचाने का निर्णय किया और मैडम को बताने लगा। उसने अपना डर भी जाहिर कर दिया। मैडम बोलीं -  डर की क्या बात।  अच्छा किया तुमने जो शक जाहिर किया। हम तो आंख मींच कर मैनेजर पर भरोसा करते रहे हैं। अभी देख लेते हैं, तुम्हारा शक निर्मूल है या...। लाओ, यह फाइल ही देख लेती हूं.... महत्वपूर्ण कहकर भेजी थी मैनेजर ने। किशन ने फाइल फिर से मैडम को सौंप दी। फाइल के आखिरी पन्ने तक पहुंचते पहुंचते मैडम चिहुंक उठीं। और जरूरी जगहों पर साइन करने के साथ साथ उसे एक पन्ने पर उभरी तहरीर ने चिहुंका दिया था। उसने उस पन्ने पर भी साइन कर दिए थे जो स्टाम्प लगा था और जिसमें अंग्रेजी में लिखा था मेरे पति सुनील के न रहने और मेरे ष्श्वसुर सेठ दामोदर दास जी के बीमार रहने से मैं सभी कार्य सुचारु रूप से संचालन करने में स्वयं को असक्षम मानती हूं, इसलिए कुंदन पुत्र चुनीलाल, मैनेजर मेरे कारोबार और मेरी संपत्तियों के लेन-देन के लिए स्वतंत्र है।

मैडम सुलझे हुए व्यक्तित्व की मालकिन थीं। वकालत नहीं करतीं थीं मगर एलएलएम तक की पढ़ाई और ज्ञान आज उनके काम आया। वे समझ गईं, मैनेजर उन्हें सड़क पर लाने की तैयारी में है। उन्होंने  पूरी फाइल पर जगह जगह पेन से क्रास के निशान लगाए। वे कुछ तय कर चुकी थीं।

मैडम ने किशन से पूछा - तुमने किसी को ऐसी बातें बताई तो नहीं है न। किशन बोला - मैडम मैं क्या बताऊंगा किसी को, मुझे खुद कारखाने के साथियों ने ये बातें बताई हैं। और... 

मैडम ने उत्सुकता से पूछा - और... क्या और...

किशन बोला - मैडम शर्म आती है... लेकिन सच यह है कि मैनेजर साहब को अपनी आंखों से ऐसी हालत में देखा है कि .... क्या कहूं बताइए.... धन-दौलत का लालच उन्हें गर्त में धकेल रहा है।

मैडम ने ड्राइवर से कहकर कार का दरवाजा खुलवाया और किशन को कार में बैठने को कहा। किशन हिचकते हुए बोला - मैडम मैं कैसे .... 

उसे जवाब मिला - मैडम नहीं कहो.... बहिन हूं तुम्हारी । मुझे खुशी ही कहो।

किशन - ऐसा कैसे हो सकता है भला!

रीमा - कोई जब बहिन का सुहाग उजाड़ने की साजिष रच सकता है, कोई जब अपनी बहिन की धन-दौलत की खातिर अपनी अस्मत दांव पर लगा सकती है तो किशन भी खुशी को रीमा कह सकता है। किशन पुलकित था। उसके चेहरे पर खुशी के रंग छाए हुए थे।





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