जिज्ञासा - इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति अतिसूक्ष्म रूप में हुई थी !

 





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जिज्ञासा - इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति अतिसूक्ष्म रूप में हुई थी ! 




जिज्ञासा -... कौतूहल होता है, इस ब्रह्माण्ड
की उत्पत्ति अतिसूक्ष्म रूप में हुई थी, विज्ञान यह कहता है। साथ ही कहा जाता
है कि व्योम अर्थात षून्य में अतिसूक्ष्म बिन्दू में बिग बेंग होने के एक सेकंड
के भी लाखवें हिस्से में हमारी हथेली के बराबर और फिर कुछ ही पलों में बढ़कर
पृथ्वी के आकार में आने के बाद भी ब्रह्माण्ड के विस्तारित होने की रफतार बढ़ती
ही गई और आज भी इसका विस्तार अति तीव्र गति से हो रहा है। जिज्ञासा का भी कुछ
ऐसा ही रूप दिखाई देता है। जिज्ञासा का आरंभ होने के बाद कड़ी से कड़ी जुड़ती
जिज्ञासा आगे बढ़ती ही जाती है ठीक ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के मानिंद। अब
जिज्ञासा के छोर को ब्रह्माण्ड के छोर यानी उसके आरंभिक काल की खोज की तरह
खोजें तो....क्या संभव है कि अतिसूक्ष्म को हम जान सकेंगे!!! विज्ञान की मानें
तो इसके उत्पति काल की गणना साढ़े तेरह अरब साल की गई है। यानी कि इस नष्वर
संसार में जो कुछ हम देख रहे हैं उसके साकार रूप का दर्षन साढ़े तेरह अरब साल
पहले होना आरंभ हुआ... कौतूहल है...। कैसे विष्वास करें।




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मानव मस्तिष्क तो अपने
जीवनकाल के 60-70-80 या 100-110 या इससे कुछ अधिक 150 साल भी स्मृति में नहीं
रख पाता!!! फिर बिना किसी प्रमाण के हम कैसे कह सकते हैं कि साढ़े तेरह अरब साल
पूर्व ब्रह्माण्ड नहीं था...! ज्योतिष, ज्ञात वेद-षास्त्रों का ज्ञान, पुराण
कथाओं, पौराणिक संदर्भों आदि को सम्मिलित करते हुए भारतीय संस्कृति में
प्रवाहित अध्यात्म की गंगा में डुबकी लगाएं तो बिग बेंग या ऐसी किसी घटना की
मुझे जानकारी नहीं है किंतु सृष्टि रचना के प्रसंग अवष्य पढ़े सुने हैं। एक
ग्रंथ है हरिवंषपुराण। इसमें भी बहुत ज्ञान की बातें समाहित है। अन्य बहुत से
ग्रंथ हैं जो हिन्दी संस्कृति आदि भाषाओं में उपलब्ध हैं। इनमें भी इस संसार के
बारे में बहुत कुछ लिखा है जिससे विराट और सूक्ष्म को एक साथ देखने का
दृष्टिकोण मिलता है। जिज्ञासा का केन्द्र बिन्दू अन्य संदर्भों या प्रसंगों की
ओर न रखकर केवल इसी विचार पर केन्द्रित देखें तो मानव के मस्तिष्क में स्मृति
रूप में सहेजे खजाने के अलावा नवीन उद्गमस्थल भी दिखाई देने लगते है। हमारी
कल्पना निराधार नहीं होती। कल्पना से विराट और क्या हो सकता है!!! कल्पना से
सूक्ष्म भी क्या कोई हो सकता है!!! एक सेकंड के लाखवें भाग में हम कल्पना कर
बैठते हैं कि बिगबेंग ऐसे हुआ होगा... इससे पहले ऐसा होगा... वैसा होगा...।
अर्थात... ब्रह्माण्ड को भी हम अपने मस्तिष्क से उपजाते हैं...! फिर निष्चय ही
इस मस्तिष्क के सूक्ष्मतम कोटर और कोटरों में ब्रह्माण्ड से आगे की बातें भी
सुप्तावस्था में पड़ी हैं जो कल्पना करते ही सेकंड के भी अति लघु रूप में हमें
आभासित होती है। कौतूहल है, बहुत से विद्वानों ने बहुत-सी बार लिखा है, मानव तन
में ब्रह्माण्ड समाया है। विराट रूप दर्षन में भी श्रीप्रभु के अंग अंग में
समस्त सृष्टि साकार दिखती है। यानी कल्पना, विचार ही सूक्ष्मतम है... क्या कह
सकते हैं...! विद्वानों के मत से ही इस विषय को समझा जाए तो उचित है।
गतांक से जारी ---
जिज्ञासा - 6 ---
मानव कोटर (तन, मस्तिष्क) में कैसे-कैसे और कितने कौस्तुभ (रत्न) सहेजे हुए है
इसकी खोज आदि काल से जारी है। कम से कम हमारी भारतीय संस्कृति में अध्यात्म इसी
खोज के छोर की ओर ले जाता है। इतना सब कुछ जानते-बूझते भी हम चिंता से मुक्त
नहीं हो सके हैं। कन्फ्यूसियस का नाम लेकर अपने विदेषी ज्ञान का दम भरने वाले
देसी जानकारों के लिए यह विषय नाम कमाने का साधन हो सकता है। जनता के लिए चिंता
जताना नेताओं के लिए वोट बैंक तैयार करने का जरिया हो सकता है। कलमकार के लिए
अछूते विषय को खोजने का विषय भी हो सकता है। सच यही है कि आदि काल से चिंतन
करने वाले विद्वान आज तक समाज को चिंता-मुक्त नहीं कर सके। हर बार नये रूप में
चिंता सामने आ ही जाती है।     
    यूं भी, चिंता हुई तभी तो समुद्र मंथन से दैत्यों और देवताओं को ऐसा कुछ
मिला, जो अमृत और जहर की प्रकृति एवं संज्ञा से विभूशित हुआ। बहुत-कुछ और पाने
की चाह में सागर आज तक मथा जा रहा है। पता नहीं कब समुद्र मंथन हुआ और जहर के
साथ अमृत समाज को मिला। पौराणिक कथाओं में समुद्र मंथन का वर्णन और उसकी
विवेचना में भूत-भविष्य के कितने ही कौतूहल छिपे है। कितने ही कौस्तुभ भरे हैं।
कौस्तुभ यानी समुद्र मंथन से निकला एक ऐसा रत्न जिसे स्वयं विष्णु भगवान अपने
सीने पर धारण किए रहते हैं। यूं कौस्तुभ उंगलियां मिलाने की एक कला को भी कहते
हैं। एक तरह के तेल को भी कौस्तुभ कहते हैं।
    हमारे वेद-षास्त्र आज भी भारत को विष्व का गुरु ही सिद्ध करने के लिए काफी
हैं मगर जिन्हंे खास विचारधारा के कुछ लोग प्रायः काव्य कहते हैं। जरूरत इनमें
निहित उन फलों को सामने लाने की है जो ज्ञान-वृक्ष पर लदे हैं मगर दृष्टि में
वृक्ष ही नहीं आ रहा। केवल तना दिखाई दे रहा है। उसे भी सूखा, बेकार समझकर
उपेक्षित किया जा रहा है। अपनी-अपनी आंख से दिखते तने की कोटर में ही झांक लिया
जाये तब भी हमें उसमें कौस्तुभ भरा नजर आएगा। निष्चित रूप से-सच। यूं भी
‘जंगलात’ की जानकारी रखने वाले आसानी से कह सकते हैं, कोटर में नभचर और थलचर
साथ भी रहते हैं। किन्हीं मायनों में जलचर भी इस कोटर से परे नहीं रह सकते। वे
भी इसमें समाहित कौस्तुभ हैं।
    यह भौतिक जगत एक जंगल ही के समान तो है। इसमें मानव-वृक्षों की अपनी-अपनी
श्रेणियां है, वर्ग हैं, जातियां है। कोटिषः श्रेणियों वाले जीव-जन्तुओं के
लिए यहां सुख-दुख दृष्टिगत होता है। क्या यह केवल अनुभूति है! मृग-मरीचिका है!
अध्यात्म है या भौतिक ! कौस्तुभ भरा कोटर में सुख की अनुभूति बनी रहे और
अक्षरों के समूह प्रफुल्लित कर सकें, यह लक्ष्य है। मन में विष्वास और गुरुजनों
के आषीर्वाद से कुछ पंक्तियों को कविता के नाम से इस कोटर में प्रस्तुत किया
है। आपके मत कौस्तुभ की तरह सहेज कर रखने के लिए तत्पर। (’’ मुझ नादान से जाने
अनजाने कोई भूलचूक हो गई है तो विद्वानों से क्षमाप्रार्थी हूं। )
-  MLT 12 मई 2007


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